Friday, December 27, 2013

मिर्ज़ा गालिब की २१६ वीं जयंती पर विशेष

दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी सअई फ़रमायेंगे क्या / ग़ालिब

दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई[1] फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या

बे-नियाज़ी[2] हद से गुज़री, बन्दा-परवर[3] कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'

हज़रत-ए-नासेह[4] गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह[5]
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या

आज वां तेग़ो-कफ़न[6] बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र[7] मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या

गर किया नासेह[8] ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या

ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़[9] हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां[10] से घबरायेंगे क्या

है अब इस माअ़मूरा[11] में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त[12] 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या

शब्दार्थ:
  1. सहायता
  2. उपेक्षा
  3. मालिक, रखवाला
  4. महान उपदेशक
  5. आँखें और दिल रस्ते में गलीचे की तरह बिछ जाएगें
  6. तलवार और कफ़न
  7. प्रशन उठाना, ना-नुकर करना
  8. उपदेशक
  9. जु्ल्फ़ों के कैदी
  10. कैदखाना
  11. नगर
  12. प्रेम के दुखों का अकाल
हैप्पी बर्थड़े चचा गालिब

3 comments:

राजीव कुमार झा said...

बहुत सुंदर.

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस प्रस्तुति को आज की बुलेटिन मिर्ज़ा गालिब की २१६ वीं जयंती पर विशेष ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

ब्लॉग - चिट्ठा said...

आपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ कड़ियाँ (27 दिसंबर, 2013) में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,,सादर …. आभार।।

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